Friday, August 14, 2015

आवाज़ और आवारगी

उनवान - title

उस गैरते नाहीद की हर तान है दीपक,
शोला सा लपक जाए आवाज़ तो देखो... - मोमिन

*गैरत - शर्म
* नाहिद - शुक्र का तारा

अभी सुन लो तो शायद सुक सको तुम दिल के नगमों को,
की अब इसकी सदा कुछ खुद ब खुद कम होती जाती है

इस शहर में जीने के अंदाज़ निराले हैं,
होंठों पे लतीफे हैं आवाज़ में छाले हैं

जरा बोलते रहियो ए हम्सफीरों,
मैं आवाज़ दूँ तुम भी आवाज़ देना - सफी लखनऊवी

*हम्सफीरों - एक जुबाँ बोलने वाले

खयाले खातिरे एहबाब चाहिए हर दम,
अनीस ठेस न लग जाए आबगीनों को - मीर अनीस

*आबगीनों - कांच के दिलों

शहर की रात और मैं नाशादो नाकारा फिरूं,
जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूं,
गैर की बस्ती है कब तक दर ब दर मारा फिरूं,
ऐ गमे दिल क्या करूँ, ऐ वहशते दिल क्या करूँ...

झिलमिलाते कुमकुमों की राह में जंजीर सी,
रात के हाथों में दिन की मोहिनी तस्वीर सी,
मेरे सीने पे मगर चलती हुई शमशीर सी,
ऐ गमे दिल क्या करूँ, ऐ वहशते दिल क्या करूँ..

ये सर्द रात ये आवारगी ये नींद का बेड़ा,
हम अपने शहर में होते तो घर आ गए होते...

सो गई शःहर की साड़ी सड़कें,
एक आवारा मगर बाकी है...

*बाईस - वजह
शउर - पहचान

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