देखा जो तीर खाके कमींगाह की तरफ
अपने ही दोस्तों से मुलाक़ात हो गई
कमींगाह - घात लगाने की जगह
रात यूं दिल में तेरी खोयी हुई याद आई,
जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाए,
जैसे सहराओं में हलके से चले बादे नसीम,
जैसे बीमार को बेवजह करार आ जाए...
इक्का दुक्का सदाए जंजीर,
ज़िंदा में रात हो गयी है
ज़िन्दा - कैदखाना
दयार ए शाम नहीं, मंजिले सहर भी नहीं,
अजव नगर है यहाँ न दिन चले न रात चले...
कभी तो रात को तुम रात कह दो,
ये काम इतना भी अब मुश्किल नहीं है,
सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का,
यही तो वक्त है सूरज तेरे निकलने का ...
जाय है जी निजात के गम में,
ऐसी जन्नत गयी जहन्नम में...
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,
दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है..
रात दिन गर्दिश में है सात आसमां,
हो रहेगा कुछ न कुछ घबराएँ क्या...
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